08 July 2009

लेबनान में लोकतंत्र की बहार

पूरी दुनिया की निगाह हमेशा की तरह दक्षिण एशिया पर टिकी हुई है। अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा और विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन चाहते हैं कि मध्यपूर्व में उनकी सत्ता हमेशा कायम रहे। मध्य पूर्व के इराइराल-फिलिस्तीन, ईरान, लेबनान, सीरिया जैसे देशों की राजनीतिक गणित दरअसल अमरीका ने ही बिगाड़ रखी है। इन सब देशों में भी मध्य-पूर्व में बसे लेबनान देश पर पूरी दुनिया की निगाह हमेशा से टिकी रहती हैं। खासकर इन दिनों दुबारा उस पर अमरीका सहित दुनिया के देशों का ध्यान है। हाल ही लेबनान में संपन्न आम चुनावों में लेबनान में सत्तारूढ़ मार्च 14 गठबंधन ने भारी बहुमत हासिल किया और फिर से सरकार बनाने का दावा पेश किया। इस गठबंधन को अमरीका, फ्रांस, इजिप्ट और सऊदी अरब का समर्थन हासिल था। अमरीका और उसके समर्थक देश चाहते थे कि सत्तारूढ़ गठबंधन इस बार भी विजय प्राप्त करे और उसे लेबनान के लिए अपनी नीतियों में ज्यादा फेरबदल ना करना पड़े। जबकि दूसरी ओर इन चुनावों में सीरिया और ईरान समर्थित हिजबुल्लाह गठबंधन था। चुनावों में इसको करारी हार का सामना करना पड़ा। मार्च 14 गठबंधन के अध्यक्ष साद हरीरी के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद जताई जा रही है। लेबनान की संसद में कुल मिलाकर 128 सीट हैं। जिनमें 64 मुसलमानों के लिए और 64 ईसाइयों के लिए हैं। इन चुनावों में मार्च 14 गठबंधन को 71 सीटें मिली हैं। चरमपंथी हिजबुल्लाह समर्थित क्रिस्चियन पार्टी को 57 सीटें ही मिलीं। हिज्बुल्लाह को शिया उग्रवादी समूह माना जाता रहा है। दरअसल लेबनान का ईसाई समुदाय दोनों खेमों के बीच बंटा रहता है। हिजबुल्लाह को भी ईसाइयों और शियों के समर्थन से इस चुनाव में जीत की उम्मीद थी। लेबनान में मतदान करने के योग्य लोगों की संख्या तकरीबन 30 लाख है।

इतना मतदान पहली बार
खास बात है कि साद हरीरी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ मार्च 14 गठबंधन ने ही 2005 में भारी जीत के साथ सरकार बनाई थी। साद हरीरी लेबनान के पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हरीरी के बेटे हैं। उसी वर्ष साद हरीरी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की बेरूत में एक कार बम धमाके में मौत हो गई थी। इस कार बम धमाके के बाद सीरिया को करीब 29 वर्ष बाद लेबनान से हटना पड़ा था क्योंकि उस पर कार बम धमाके में शामिल होने के आरोप लगे थे। हालांकि सीरिया इसका खंडन करता रहा है। रफीक हरीरी की मौत के बाद सीरिया विरोधी पार्टियों ने मिलकर मार्च 14 गठबंधन का एलान किया था। इस गठबंधन का एजेंडा लेबनान की सरकार में सीरिया के हितों के लिए काम कर रहे तत्वों को खत्म करना और लेबनान में तैनात सीरिया के सैनिकों को वापस भेजना था। सीरिया ने 1976 में लेबनान में चल रहे गृह युद्ध को खत्म करने के लिए वहां अपने 40,000 सैनिक तैनात किए थे। लेकिन गृह युद्ध खत्म होने के बाद भी सीरिया के सैनिक लेबनान में ही रहे। रफीक हरीरी की मौत के बाद बने दबाव के चलते सीरिया ने 2005 में अपने सारे सैनिकों को वापस बुला लिया था। इतना मतदान लेबनान के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। साल 2005 के मुकाबले इस बार ज्यादा लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया और चुनावों में करीब 52 फीसदी मत पड़े। इन नतीजों से अमरीका को राहत मिली है, क्योंकि उसने स्पष्ट किया था कि अगर विपक्षी गठबंधन को चुनाव में जीत मिलती है तो अमरीका लेबनान से अपने रिश्तों की समीक्षा करेगा। ऐसे में अमरीका चुनावी नतीजों से बेहद खुश है।
हिजबुल्लाह को जनता का समर्थन
लेबनान सालों से युद्ध की विभीषिका, सम्प्रदायिक हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता को झेल रहा है। ऐसे में स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली से दुबारा स्थायी सरकार का बनना देश के भविष्य के लिए सुखद संदेश है। लेबनान की घटनाएं मध्यपूर्व की सामरिक स्थिति में बदलाव का संकेत प्रस्तुत करती हैं। 2006 की बात करें, तो उस वक्त इजराइल ने लेबनान पर हमला कर दिया था। ऐसे में हिजबुल्लाह ने ही इजराइल को मुंह की खाने पर विवश कर दिया था। इजराइल अमरीका का समर्थन प्राप्त करके लेबनान पर धावा बोल चुका था और अमरीका लोकतंत्र का छद्म चेहरा दुनिया के सामने बेनकाब हो चुका था। ऐसे में हिजबुल्लाह ने राष्ट्रवादी नीतियों को तवज्जोह देते हुए लेबनान को संकट से बचाया था। ऐसे में अगर अमरीका दुनिया के सामने यह कहता है कि अगर इन चुनावों में हिजबुल्लाह की जीत हो जाती, तो लेबनान में नए संकट आ सकते थे, पूरी तरह गलत है। 2006 के हमले के दौरान इजराइल ने लेबनान को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेबनान के एक हजार से ज्यादा नागरिकों की जानें गई थीं। ऐसे में लेबनानी सरकार ने इजराइल को सबक सिखाने की बजाय हिजबुल्लाह के निशस्त्रीकरण की मांग शुरू कर दी थी। यह सब अमरीका की ही कारगुजारियां थीं। ऐसे में हिजबुल्लाह ने भी सरकार में एक तिहाई भागीदारी की मांग की। उस वक्त सिनोरिया सरकार अड़ी रही और हिजबुल्लाह के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। पर हिजबुल्लाह ने भी सिनोरिया सरकार को धूल चटा दी क्योंकि हिजबुल्लाह को भी लेबनान में जनता का भारी समर्थन प्राप्त है।
राष्ट्रपति चुनाव अभी बाकी हैं
सिनोरिया सरकार की चाल थी कि वह अपने देश लेबनान की सेना को इजराइल के खिलाफ नहीं बल्कि हिजबुल्लाह के खिलाफ उतारना चाहती थी। सिनोरिया सरकार समर्थक पार्टियों में उस वक्त सबसे बड़े घटक के नेता साद हरीरी एक बड़ी निर्माण कंपनी के मालिक हैं, इस कंपनी की गणना दुनिया की 500 सबसे बड़ी कंपनियों में होती है। साद हरीरी ने संभवत यही सोचा होगा कि इजराइली हमलों से लेबनान के विध्वंस से उनकी कंपनी को बहुत सा कारोबारी फायदा हो सकता है। इसके साथ ही अब मार्च 14 गठबंधन चाहता है कि किसी तरह राष्ट्रपति पद भी उनके कब्जे में आ जाए। अभी लेबनान में सीरिया समर्थक राष्ट्रपति एमीले लाहोद सत्ता में हैं। 2004 में सीरिया के दबाव के चलते लेबनान में संविधान में संशोधन करते हुए लाहोद के कार्यकाल को विवादास्पद रूप से तीन सालों से लिए बढ़ाया था। तब से लेकर लगातार मांग उठ रही है कि राष्ट्रपति लाहोद को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। यह मुद्दा अभी सुलझना बाकी है। मार्च 14 गठबंधन ने अपना नाम इस तर्ज पर रखा है कि जब 2005 में रफीफ हरीरी की हत्या हुई थी, तो 14 मार्च को ही बेरूत में सीरिया के प्रभाव को लेबनान से कम करने के लिए इस गठबंधन ने भारी विरोध प्रदर्शन किए थे। इन चुनावों में मार्च 14 गठबंधन को जिताने में अमरीका सरकार ने जी-जान लगा दी थी। उसने लेबनान के लोगों को चेतावनी भी दी थी कि अगर हिजबुल्लाह को वे जीताते हैं, तो अमरीका द्वारा दी जाने वाली सारी मदद रोकी जा सकती है। लेबनानी लोगों को भी पता था कि जब फिलीस्तीन में हमास की जीत हुई थी, तो अमरीका ने उसे आर्थिक मदद देना बंद कर दिया और इजराइल को उस पर हमला करने की छूट दे दी थी। ऐसे में देखना दिलचस्प रहेगा कि लेबनान के राष्ट्रपति चुनावों का क्या हाल रहता है और सीरिया की दखलअंदाजी को खत्म करके गठबंधन 14 मार्च किस तरह लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता है।
-आशीष जैन

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