भई रेडियो है, खूब बजाओ। नई-नई बातें सीखो। आज से कुछ समय पहले या यूं कहें, पिताजी के समय में तो घर पर रेडियो का मतलब था जानकारी का खजाना। क्रिकेट की सीधी खबरें। एक चौके पर पूरा गांव तालियां बजाने लगता था। अगर मैं कहूं कि गावस्कर और कपिल दादा का नाम रेडियो ने गांव-गांव तक पहुंचाया और उन्हें अमर कर दिया, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ताजातरीन समाचार। महिलाओं की प्यारी, सखी-सहेली। स्वास्थ्य, खान-पान और घर की देख-रव्ख। उस वक्त का युवा या कहें यूथ रेडियो को दोयम दर्जे का और महिलाओं व बुजुर्गों के लिए बनाया गया टाइमपास साधन समझता था।
भूल जाओ हर गम
समय बदला, देश में एफ एम का जमाना आया। नए गाने बजने लगे। युवाओं की बोली, नए ट्रेंड और नए जमाने की भाषा। यूथ दीवाना हो गया। बौरा गया, क्या है ये? मानो सपनों की उड़ान को आसमान को मिल गया। चौबीसों घंटे, बस झूमते रहो। नाचते रहो, हर गम को भूलकर बस खुशियों को अपने दामन में भर लो। दुख और दुश्वारियां तो इस दुनिया में हैं ही नहीं। भूल जाओ देश को, समाज को, शहर को, गांव को और अपने परिवार को। बस सितारों के नजारों को महसूस करते रहो। क्या यही जिंदगी है?क्या ये सही हुआ? क्या सब कुछ भूलकर खुद को ऐसे भंवर में डुबो देना जायज है, जहां सिर्फ रंग हों, महफिल हो, चुटकले हों। पर संवेदनाओं के लिए कोई जगह न हो? सुबह उठते ही एफ एम पर लड़का-लड़की, प्यार-मोहब्बत-इश्क और एक-दूसरे को फ्लर्ट करने की ही बातें होने लगती हैं? कस्बाई लड़के-लड़कियां इन सबको ही जिंदगी समझने लगते हैं। भूल जाते हैं माता-पिता का आशीर्वाद पाना। उन्हें याद रहती है मॉम-डैड से मांगी गई पॉकेट मनी। भूल जाते हैं मंदिर जाना और याद रहता है मूवी जाना।क्या आपको पता है?मैं आज की युवा पीढ़ी को देखता हूं, तो अचरज से भर जाता हूं। उन्हें देखकर-सुनकर एक बार भी पता नहीं लगता कि वे हिंदुस्तान की संतान हैं। बातों से लेकर पहनावा, स्टाइल और यहां तक कि सपने भी पूरी तरह बाहर की दुनिया से प्रभावित। वे नहीं जानते कि बापू कौन हैं? हां, एफ एम सुन-सुनकर उन्हें शाहरुख खान के बच्चों तक के नाम रट गए हैं। उन्हें नहीं पता कि पड़ोस की चाची को क्या बीमारी है? पर उन्हें गजनी फिल्म में आमिर खान के पंद्रह मिनट में याददाश्त भूलने वाली खास बीमारी के बारे में विस्तार से पता है। उन्हें पता नहीं कि अलसुबह दादा-दादी के साथ उंगली पकड़कर सैर पर जाने से क्या मिल जाएगा। पर उन्हें याद है कि इस साल कौन-कौनसे मॉडल कहां-कहां रैंप पर चहलकदमी करेंगे? ये सब बातें एकाएक युवाओं के दिमाग में घर नहीं की हैं। सालों से एफ एम की बातों ने उन्हें प्रभावित किया है। वे चारों ओर झूठी दुनिया को खोजते रहते हैं। एफ एम रेडियो ने उनके लिए सितारा शख्सियतों को भगवान बना दिया है। उनके आदर्श विवेकानंद नहीं रह गए हैं। युवाओं की बातों में देश गायब है, तो इसकी वजह भी एफ एम रेडियो ही है। क्या सुना रहा है, एफ एम रेडियो। यही ना कि किसी को बकरा कैसे बनाएं? किसी की खिल्ली कैसे उड़ाएं? कैसे लड़के-लड़कियों पर अपनी स्टाइल से जादू चलाएं? कैसे मम्मी-पापा से झूठ बोलकर मूवी के लिए घर से निकला जाए?
शौक है या कुछ और
मैंने जब भी एफ एम सुनने के लिए रेडियो ट्यून किया है, तो लगता है आखिर ये सब क्या है? युवा तो मैं भी हूं। पर ये किन युवाओं की बात कर रहे हैं? ये युवाओं को सपने दिखा रहे हैं। ऐसे सपने जिनका वास्तविकता के धरातल से कोई सरोकार नहीं है। आधुनिक युवाओं को गौर से देखें, तो पता लगेगा कि उनका ज्यादातर समय एफ एम सुनने में जाया जाता है। वे पढऩे-लिखने की आदतों को कभी का बिसरा चुके हैं। सद्साहित्य से उनका वास्ता नहीं पड़ता है। इस रेडियो पर जब-जब नए प्रॉडक्ट की बात होती है, तो युवा कैसे न कैसे उन्हें पाने के सपने संजोने लगते हैं। अपनी पॉकेटमनी की बचत करने के बजाय उनका रुख फिजूलखर्ची की बढऩे लगता है। खान-पान की बात करें, तो एफ एम की चटपटी बातों की तरह उन्हें बस कुछ चटपटा ही चाहिए। पौष्टिक खाने से उनका कोई सरोकार नहीं है। रात भर बजने वाले एफ एम रेडियो से वे रात में भी उल्लुओं की तरह जागते रहते हैं और बिस्तर पर पड़े-पड़े ही घंटों कान में इयरफोन डालकर पड़े रहते हैं। कॉलेज-स्कूल में पहुंचने पर इन युवाओं की भाषा में टपोरी अंदाज रहता है। ओए भीड़ू, क्या भाई बिंदास है... जैसे जुमले आसानी से सुनने को मिल जाते हैं। अपने अध्यापकों के नाम बदलकर उन्हें चिढ़ाना जैसे उनका शगल बन गया है। क्या यह सांस्कृतिक रूप से किसी इंसान का उत्थान कहा जा सकता है? मेरा मानना है कि अगर किसी इंसान की बोली में नकारात्मक बदलाव आने लगता है, तो समझ लेना चाहिए कि अब वह अपने सांस्कृतिक सरोकारों को खोने लगा है। बुजुर्गों को सम्मान देने की बजाय एफ एम सुनकर अगर कोई युवा उन्हें खड़ूस या मामू कहकर पुकारे, तो क्या वह असल मायने में युवा कहलाने लायक भी रह जाता है? कतई नहीं। युवा शक्ति है, पर यह शक्ति झूठे दिखावे और फैशनपरस्ती से त्रस्त है। इस सब की जिम्मेदारी उनके तथाकथित दोस्त एफ एम रेडियो की ही है।
सब कुछ गलत नहीं
ऐसा नहीं है कि एम एम रेडियो का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं है। राजस्थान में सामुदायिक एफ एम रेडियो भी हैं। ज्ञानवाणी को ही लीजिए। यह भी तो युवाओं के लिए ही है। पर फिर युवा इसे सुनकर अपने कॅरियर की दिशा को संवारते क्यों नहीं है? सामुदायिक रेडियो में भागीदारी करके समाज को नई दिशा क्यों नहीं देते हैं? एफ एम वालों को अक्सर कहना होता है कि आज के यूथ की बस यही डिमांड है। इसलिए हम प्यार-मोहब्बत और नोंक-झोंक को तरजीह देते हैं। पर मेरा सवाल है कि आपने युवाओं की रुचि पता करने के लिए अब तक क्या कोई सर्वे भी करवाए हैं? मुझे पता है कि इसका जवाब ना में होगा। एम एम वाले अपनी बातें युवाओं पर थोप रहे हैं। युवा भी दिग्भ्रमित हो रहे हैं। ऐसे में मेरी तो यही राय है कि एफ एम रेडियो पर कोई न कोई नियामक प्राधिकरण होना चाहिए, जो भाषा और कंटेंट पर पैनी निगाह रखे और युवाओं के बीच सही कार्यक्रमों को ही पहुंचने दे।
-आशीष जैन
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