13 August 2009

ये कैसी विदेश नीति...

भारत की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति रही है। फिर एकाएक ऐसा क्या हुआ है कि पूरी दुनिया को लगता है कि भारत अपनी विदेश नीति से भटक रहा है। 1955 में जिस देश के प्रधानमंत्री पूरी दुनिया को गुटनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा सकते हैं, उसी देश के प्रधानमंत्री किसी खास मुद्दे पर ढिलाई बरतें, यह तो बिल्कुल शोभा नहीं देता। भारत को अपनी विदेश नीति पर पुनर्मूल्याकन करने की जरूरत है। लंबे कांग्रेस शासन के बाद जब अटलबिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने, तो सबका मानना था कि अब विदेश नीति अमरीका उन्मुखी हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। देश के हर प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने भी सारे देशों से महत्वपूर्ण बातचीत और सौदे जारी रखे। जब अमरीका ने इराक पर हमला किया, तो उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाकर विचार विमर्श किया। विदेश नीति पर प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक बुलाने वाकई कमाल का निर्णय था। पहले भी जवाहर लाल नेहरू और पीवी नरसिंहराव जैसे प्रधानमंत्री विदेश नीति के बारे में विपक्ष से राय लेते रहे, पर सर्वदलीय बैठक का अपना ही महत्व है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर पीवीनरसिंहराव तक के काल में भारत पूरी तरह से गुटनिरपेक्ष नीति का ही पालन कर रहा था, पर धीरे-धीरे इस सोच में बदलाव आने लगा। नरसिंहराव जब प्रधानमंत्री थे, तो कश्मीर के मुद्दे पर भारत ने अपना पक्ष रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र में विपक्ष के नेता अटलबिहारी वाजपेयी को भेजा था।

हाल ही 2005 में भारत अमरीका असैन्य परमाणु समझौते के वक्त भारत की विदेश नीति पर काफी गर्मागर्म चर्चाएं हुईं। विपक्ष समेत ज्यादातर विश्लेषकों का मानना था कि अमरीका यूरेनियम देने के बहाने भारत के परमाणु संयंत्रों पर अपनी पैनी नजर रखना चाहता है, पर उस वक्त प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने एटमी करार को अंजाम तक पहुंचा दिया। उस समय भारत की विदेश नीति में बदलाव साफ तौर पर देखा जा रहा था। भारत ने आईएईए बैठक में ईरान के खिलाफ वोटिंग की। यह सब अमरीकी दबाव के चलते हुआ। इसका खामियाजा भारत को ईरान-पाक-भारत गैस पाइपलाइन खोकर चुकाना पड़ा।
हाल ही पाकिस्तान के मुद्दे से पता लगता है कि भारत ने अपनी विदेश नीति में भारी बदलाव कर दिया है। वैसे मनमोहन सिंह अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में गजब के काम कर चुके हैं। पहले उन्होंने पाकिस्तान को आतंकवाद से पीडि़त बताया था और अब वे पाकिस्तान के बलूचिस्तान में चल रही जंग ए आजादी को मनमोहन सिंह ने आतंकवाद कहकर एक नई मुसीबत ओढ़ ली है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने जब बलूचिस्तान में आतंकवादी वारदातों पर चिंता व्यक्त की, तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें आश्वस्त किया कि इसमें भारत का कोई लेना-देना नहीं है। पाक चाहे तो भारत से कुछ भी पूछ सकता है। ये बातें साबित करती हैं कि हमारे देश के प्रधानमंत्री एक अच्छे कूटनीतिज्ञ नहीं है। वे बड़े सीधे इंसान हैं। पर वे नहीं जानते कि साझा घोषणा पत्र का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितना महत्व है। सबसे पहले तो इस संयुक्त वक्तव्य चौथे पैरे के इस वाक्य पर गौर करें, 'आतंकवाद के विरुद्ध की जाने वाली कार्रवाई को साझा संवाद प्रक्रिया के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए और उन्हें एक ही खांचे में नहीं रखा जाना चाहिए।Ó इससे तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मुंबई हमले के बाद देश से किए वायदे को भी भूल रहे हैं। भारत ने उस वक्त स्पष्ट किया था कि पाकिस्तान से तब तक बातचीत नहीं की जाएगी, जब तक कि वह मुंबई हमले के दोषियों को सजा न दिला दे। रही बात बलूचिस्तान की, तो वहां तो भारत-पाक बंटवारे के समय से ही आंदोलन चल रहा है। पिछले पचास सालों से बलूचिस्तान के शासक रहे नवाब अकबर खान बुगती इस आंदोलन के अगुवा थे। सैन्य शासन ने उनकी हत्या करवा दी थी। उन्हीं बुगती के बेटे तलत बुगती पूरी तरह से इस बात को खारिज करते हैं कि बलूचिस्तान के आंदोलन में भारत का हाथ है।
हाल की विदेश नीति से जुड़ी बड़ी विफलताएं-
1. जी8 सम्मेलन में पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग कम करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की जिम्मेदारी लेकर भारत सरकार ने भारतीय उद्योग के हितों की अनदेखी की।
2. जी8 में ही एक प्रस्ताव आया कि एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देशों को एटमी संवर्धन एवं पुन: प्रसंस्करण तकनीक नहीं दी जाएगी। जबकि अमरीका से करार करते वक्त उसने इस नियम में बदलाव करने की बात कही थी। जी8 की मंजूरी मिलने के बाद अब भारत पर एनपीटी पर हस्ताक्षर का दबाव बढ़ गया है।
3. अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की हाल की भारत के दौरान दोनों देशों के बीच में एंड यूज एग्रीमेंट हुआ। इसके तहत अमरीका अपने बेचे गए सामान की पड़ताल करेगा कि उसका सही इस्तेमाल भी हो रहा है या नहीं। इससे हमारी संप्रभुता पर आंच आ सकती है।
4. मिस्र के शर्म अल शेख में हुए 15वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान और भारत के संयुक्त घोषणा पत्र में कहा गया कि समग्र बातचीत प्रक्रिया में आतंकवाद पर कार्यवाही को नहीं जोडऩा चाहिए। यह भारत के उस रुख से बिल्कुल उलट है, जिसमें उसने कहा था कि मुंबई हमलों के दोषियों को सजा दिलवाए बिना वो पाकिस्तान से बातचीत शुरू नहीं करेगा।
कुछ पुरानी गलतियां---
1. कबायलियों का कश्मीर पर कब्जा- 1947-48 के समय पाकिस्तानी सेना की मदद के सहारे कबायली कश्मीर में घुसने लगे और हिंदुस्तानी जमीन पर कब्जा करने लगे। लड़ाई के माध्यम से अपनी जमीन वापस लेने की बजाय उस वक्त के भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना उचित समझा। यह एक भारी भूल थी। जनवरी 1948 में युद्ध विराम तो हो गया, पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को पाकिस्तान ने मानने से इंकार कर दिया। भारत की जमीन का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया। इसे हिंदुस्तान पीओके (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) कहता है और पाकिस्तान इसे आजाद कश्मीर कहता है। कश्मीर समस्या आज भी भारत-पाक शांति के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अगर भारत-पाक के इतिहास पर नजर डालें, तो पता लगेगा कि भारत पाक के बीच 1947, 1965, 1971 और 1999 की लड़ाई के अलावा 1955, 1984, 1985, 1986, 1987, 1990,1995,1998 और 2001-2002 में लड़ाई की नौबत आ गई थी।
2. गुटनिरपेक्षता- शीत युद्ध शुरू होने पर दुनिया दो खेमों में बंट चुकी थी। एक तरह अमरीका जैसा देश था, तो दूसरी तरफ सोवियत संघ। ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता का झंडा बुलंद किया। ऐसे में अमरीका भारत से बुरी तरह खफा हुआ और इससे हम सोवियत संघ का विश्वास जीतने में भी नाकाम रहे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में जो देश शामिल थे, वे भी परदे के पीछे अमरीका या सोवियत संघ में से किसी एक के साथ थे। ऐसे में गुटनिरपेक्षता अधिक लाभप्रद साबित नहीं हुई।
3. चीन को नहीं समझा- 1954 में भारत ने चीन के साथ पंचशील समझौता किया, क्योंकि पाकिस्तान और अमरीका की नजदीकियां तेजी से बढ़ती जा रही थीं। ऐसे में शक्ति संतुलन के लिए चीन को साथ में लेना जरूरी था। पंचशील समझौते से भारत ने तिब्बत को अप्रत्यक्ष रूप से चीन का हिस्सा समझ लिया, वहीं इस समझौते को चीन ने भारत की कमजोरी के रूप में लिया। 1962 में चीन ने भारत पर हमला बोल दिया। इससे पूरी दुनिया में भारत की बुरी और कमजोर देश की छवि बनी। चीन ने भारत की अक्साई चिन इलाके पर कब्जा कर लिया। कहा तो यह भी जाता है कि जवाहर लाल नेहरू ने सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए चीन का समर्थन भी किया था।
4. ताशकंद समझौता- 1965-66 में लालबहादुर शास्त्री के एक इशारे पर हिंदुस्तानी सेना पाकिस्तान के लाहौर शहर तक पहुंच गई थी। जनवरी 1966 में सोवियत संघ के ताशकंद में समझौता हुआ। लालबहादुर शास्त्री का वहीं पर निधन हुआ। भारत सैन्य रूप से जीती गई जमीन पर भी अपना हक नहीं जमा पाया और उसे पीछे हटना पड़ा। यह कूटनीति स्तर पर भारी भूल थी। बाद में भी भारत ने ताशकंद समझौते की बात नहीं की।
5. शिमला समझौता- 1971 में भारत ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर नए देश बांग्लादेश का निर्माण करवाया। 1972 में पाकिस्तान ने भारत के साथ शिमला समझौता किया। भारत ने पाकिस्तान के 93 हजार से ज्यादा सैनिक बंदियों को मुक्त किया। इससे पाकिस्तान को तो फायदा हुआ, पर भारत इस समझौते से कोई फायदा नहीं उठा पाया।
6. श्रीलंका में सेना- 1987 में राजीव गांधी ने श्रीलंका में लिट्टे के संघर्ष को कम करने के लिए भारतीय शांति सेना भेजी। वहां बड़ी संख्या में हमारे सैनिक मारे गए। 1989 में भारत की सेना को लौटना पड़ा। लिट्टे जो पहले भारत को अपना हितैषी समझता था, इस घटना के बाद दुश्मन समझने लगा। भारत को अपने युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को खोना पड़ा।
पड़ोस का ध्यान
अगर पाकिस्तान को छोड़कर भारत अपने दूसरे पड़ोसियों के साथ विदेश नीति पर गौर करे, तो पता लगेगा कि वहां भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं है। श्रीलंका में यूं तो लिट्टे का खात्मा हो चुका है, पर तमिल विस्थापितों और सिंहलियों के बीच पनपते हुए तनाव में भारत को बेहतरीन भूमिका निभाने की जरूरत होगी। अब तमिलों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं रह गया है। ऐसे में भारत को ही बड़े भाई की भूमिका निभानी होगी। श्रीलंका के सिंहली बहुलों को यह समझाना भी मायने रखता है कि तमिल भी उनके देश के नागरिक ही हैं। वहीं नेपाल की बात करें, तो वहां भी माओवादियों की उठापटक जारी है और नेपाल के रास्ते से लाल गलियारा देश में भी फैल रहा है। ऐसे में हर कदम फूंक-फूंककर रखना होगा। लालगढ़ में माओवादी और नक्सलियों का विद्रोह कहीं न कहीं चीन और नेपाल से ही प्रेरित है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह नेपाल से अपने पारंपरिक रिश्तों को कायम रखते हुए उसे चीन का पिट्ठू बनने से रोके। हाल ही संपन्न हुए ब्रिक सम्मेलन के जरिए भारत विश्वशक्ति बनने की राह में भी महत्वपूर्ण कदम बढ़ा रहा है। अगर भारत अमरीका की बढ़ती शक्ति को रोकना चाहता है, तो उसे किसी तरह से चीन का साथ लेना ही होगा। वैसे चीन से दोस्ती की बजाय कूटनीति का सहारा लेना ज्यादा सही रहेगा। बांग्लादेश जैसे देश से भी सर्तक रहने की जरूरत है, क्योंकि अब पाकिस्तान बांग्लादेश के सहारे ही आतंकियों को भारत में भेजने की योजना बनाता है। वैसे भी भारत बांग्लादेशियों की घुसपैठ से परेशान ही रहता है।
-आशीष जैन

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