05 September 2009

न्यायपालिका का खुलापन

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2007 में हुए सर्वेक्षण के मुताबिक 77 फीसदी भारतीयों का मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है। न्यायपालिका से जनता का विश्वास डिग रहा है, तो इसके पीछे दो बड़े कारण हैं- पहला न्यायिक मामलों के निपटारे में देरी और दूसरा न्यायाधीशों की छवि। अब सबको पता है कि न्यायालयों में भी खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। भारत संभवत: एकमात्र ऐसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहां कोई नागरिक भ्रष्ट न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकते। पिछले सालों में न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार के मद्देनजर यह बेहद जरूरी हो गया है कि अब न्यायपालिका के खिलाफ जनता की शिकायतों की सुनवाई का कानून लाया जाए।

हाल ही सरकार उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से सम्बन्धित सम्पत्ति व देनदारी विधेयक 'न्यायाधीश (संपत्ति एवं देनदारी घोषणा) विधेयक 2009Ó लेकर आई थी। पर इसे पेश नहीं किया जा सका और राज्यसभा में इस पर भारी हंगामे के चलते कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने इसे वापस ले लिया गया। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात है। सदन के सदस्यों को सबसे ज्यादा आपत्ति इस विधेयक की छठी धारा से थी। इस धारा में न्यायधीशों की संपत्ति की घोषणा को आम लोगों से छुपाने या कहें सार्वजनिक नहीं करने का प्रावधान था। विधेयक के मुताबिक उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए अपनी चल-अचल संपत्ति की जानकारी देना अनिवार्य है। पर इस सूचना को न तो सार्वजनिक किया जा सकेगा और उस पर कोई व्यक्ति, कोई अदालत, कोई संस्था किसी भी प्रकार का सवाल नहीं पूछ सकेगी। उस पर चर्चा या जांच भी नहीं हो सकती। खुद मुख्य न्यायाधीश भी कुछ नहीं कर सकेंगे। मौजूदा विधेयक में बताया गया है कि न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति का ब्योरा अपने मुख्य न्यायाधीश और सरकार को देना होगा, पर यह आम जनता के लिए उपलब्ध नहीं होगा। सांसदों का मानना है कि जब वे चुनाव लड़ते वक्त अपनी संपत्ति का ब्योरा जनता के सामने रख सकते हैं, तो फिर न्याय की गरिमामय कुर्सी पर बैठे न्यायधीश यह काम क्यों नहीं कर सकते?
क्या है निहितार्थ संपत्ति घोषणा के
1. न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा को सार्वजनिक नहीं करने से सूचना के अधिकार के कानून का उल्लंघन होगा।
2. यह संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का भी साफ तौर उल्लंघन होगा।
3. सांसदों का यह आरोप कहां तक सही है कि न्यायाधीशों को संपत्ति के ब्योरे न देने की छूट देने से उन्हें विशिष्ट क्यों बनाया जा रहा है? सांसद भी तो संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करते हैं।
4. सांसदों का मानना है कि न्यायपालिका कानून से ऊपर नहीं है।
5. अगर कोई व्यक्ति सांसद पर आरोप लगने पर वे संवाददाता सम्मेलन करके अपनी बात रख सकते हैं। वे आरोप लगाने वाले को अदालत में भी घसीट सकते हैं। पर न्यायाधीश ऐसा नहीं कर सकते। वे तो अपने ऊपर लगे आरोप का खंडन भी खुले में किस तरह कर सकते हैं?
क्या है पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में प्रस्ताव पारित करके यह बात सामने रखी कि न्यायाधीश अपने मुख्य न्यायाधीशों के सामने अपनी अचल संपत्ति का ब्योरा पेश करेंगे। नई सदी में जब सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ, तो कानून के तहत जब लोगों ने जानकारी लेनी चाही, तो न्यायपालिका ने कुछ भी बताने से मना कर दिया। देश के मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन का मानना है कि अगर कानूनन जरूरी बनाया जाए, तो वे न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा में उन्हें कोई परेशानी नहीं है। बस इससे न्यायाधीशों का अनादर नहीं होना चाहिए। नई खबरों के मुताबिक अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश इस बात के लिए राजी हो गए हैं कि अब से वे अपनी संपत्ति का खुलासा उच्चतम न्यायाधीश के समक्ष करेंगे।
पद और प्रतिष्ठा
जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए आर लक्ष्मणन का कहना है कि प्रत्येक न्यायाधीश को अपने कार्यकाल के दौरान जुटाई गई संपत्ति के बारे में जानकारी देनी चाहिए। तो यह तो न्यायपालिका की पारदर्शिता के बड़ा कदम है ही। दरअसल सूचना का अधिकार लागू होने से न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़ेगी। इससे हिचकना नहीं चाहिए। भारत का सर्वोच्च न्यायालय मूल संरचना और अधिकार के मामले में दुनिया के सभी देशों के मुकाबले में श्रेष्ठ है। हमारे सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिकी उच्चतम न्यायालय से भी ज्यादा शक्तियां हैं। भारतीय उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों और न्याय अधिकरणों की अपीलीय शक्ति है। अमेरिकी कोर्ट को ऐसा अधिकार नहीं है। अमेरिकी उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श नहीं देता। संविधान के अनुच्छेद 143 के मुताबिक भारत में यह राष्ट्रपति का परामर्शदाता है। भारत का सुप्रीम कोर्ट परिपूर्ण परिसंघ न्यायालय है। यह पूरे देश का अपील न्यायालय है। यह संविधान का संरक्षक है। यह संसद या विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को भी न्यून या शून्य कर सकता है। भारतीय न्यायपालिका निर्बाध स्वतंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति को संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। जब हमारे देश की न्यायपालिका को इतने अधिकार प्राप्त हैं और चहुंओर उसका सम्मान है, फिर वह संपत्ति की घोषणा करके मिसाल कायम क्यों नहीं करते? सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में खुद ही एक सर्वसम्मत फैसले से सभी न्यायमूर्तियों के लिए मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी संपत्ति की घोषणा अनिवार्य की थी, लेकिन सूचना के अधिकार के अंतर्गत पूछे गए प्रश्न के समय कोर्ट ने मना कर दिया। याद कीजिए, संविधान सभा में हुई बहस में डा. अंबेडकर ने कहा था, 'निसंदेह न्यायाधिपति बहुत ही प्रख्यात व्यक्ति होगा, किंतु फिर भी न्यायाधीश में भी साधारण मनुष्यों की कमजोरियां व भावनाएं होंगी।Ó ऐसे में जबकि उत्तप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती की आय से ज्यादा संपत्ति की जांच न्यायपालिका कर रही हैं, तो ईमानदार, न्यायप्रिय और संविधान की रक्षा करने वाले न्यायाधीशों को खुद ऐसा करने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए। हमारे न्यायाधीशों के मन में शायद यह डर समाया हुआ है कि वे जिन लोगों के बारे में फैसला करते हैं, वे ही लोग जजों को संपत्ति के ब्योरे पूछने के नाम पर बदनाम कर सकते हैं। आम आदमी या मंत्री तो फिर भी प्रेस कांफ्रेंस करके अपने मन की बात मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचा सकते हैं, पर जज इस मामले में कुछ नहीं कर पाएंगे। उनका यह सोचना काफी हद तक सही है। पर श्रीकृष्ण पर भी आरोप लगे थे, पर उन्होंने कभी अन्याय का साथ नहीं दिया। इस विधेयक को लाने के पीछे सरकार की मंशा शायद यह है कि वह जनप्रतिनिधियों के लिए एक योजना बना रही है। दरअसल नेताओं को चुनाव के वक्त ही अपनी आय का ब्योरा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करना पड़ता है। वह भी पांच साल में एक बार। ऐसे में सूचना के अधिकार से बाहर निकलने के लिए सरकार जजों के बाद शायद मंत्रियों को इसके दायरे से बाहर निकालने के लिए ही यह विधेयक लेकर आई है।
न्यायाधीशों की संपत्ति से जुड़े मामलों का इतिहास
अक्टूबर 2005- सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून बना।
सितंबर 2007- उच्चतम न्यायालय ने मुख्य सूचना आयुक्त से कहा कि अदालतों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाए। सूचना आयुक्त ने इससे मना कर दिया।
नवंबर 2007- जजों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की है या नहीं? इस सूचना के आवेदन के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने खुलासा करने से मना किया।
6 जनवरी, 2009- मुख्य सूचना आयुक्त ने फैसला दिया कि जजों को अपनी संपत्ति का खुलासा करना होगा।
16 जनवरी- उच्चतम न्यायालय ने सूचना आयुक्त के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी।
जून माह- कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने जजों की संपत्ति घोषणा को अनिवार्य बनाने के लिए नए विधेयक की घोषणा की।
15 जून- प्रस्तावित कानून पर सरकार को न्यायपालिका की अनुमति मिली। शर्त यह थी कि जजों की संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
3 अगस्त- सरकार राज्यसभा में विधेयक पेश करने में नाकाम।
मामले महाभियोग के
एकाध मामलों को नजरअंदाज कर दें, तो देश की आजादी के 62 सालों में न्यायपालिका का दामन पाक साफ ही रहा है। अब तक सिर्फ एक जज रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग आया है, जो नाकाम रहा था। अब कोलकता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ इसी तरह की तैयारियां चल रही है। देश के इतिहास में यह दूसरा मौका है, जब उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को बर्खास्त करने की सिफारिश की गई है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति बालकृष्णन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर सेन को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी। बालाकृष्णन ने अपने पत्र में लिखा था, 'मैं कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को बर्खास्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 217 (1) और 124(4) के तहत कार्यवाही प्रारंभ करने की सिफारिश करता हूं।Ó किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने संबंधी प्रस्ताव में लोकसभा के कम से कम सौ या राज्यसभा के 50 सांसदों की सहमति जरूर होती है। सेन पर उच्च न्यायालय कोष की राशि से 58 लाख रुपये से अधिक की अनियमितता का आरोप है। न्यायापालिका में भ्रष्टाचार के हाल के एक मामले में 13 अगस्त 2008 को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश निर्मलजीत कौर के घर पर 15 लाख रुपए के नोट पाए गए। अब तक इस मामले में कोई उचित कार्रवाई नहीं हुई। इसी तरह एक मुख्य न्यायाधीश के परिजनों का नोएडा में भूखंडों की बंदरबांट का मामला कुछ समय पहले सुर्खियों में था। कुछ समय पहले गाजियाबाद में भविष्य निधि कांड में जजों के हाथ की खबरें भी आईं। इसी तरह दिल्ली हाईकोर्ट के शमित मुखर्जी पर डीडीए घोटाला में शरीक होने का आरोप लगा है। ये खबरें हालांकि कुछेक अपवाद स्वरूप ही हैं। पर यह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के तरीकों में कमी को पेश करता है।
मिसाल हैं ये न्यायधीश
तमिलनाडु में हुए मार्कशीट घोटाले के मामले की सुनवाई कर रहे मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस आर. रघुपति ने खुली अदालत में उन्हें प्रभावित करने की बात कही थी। उन्होंने घोटाले के मुख्य अभियुक्त कृष्णमूर्ति के वकील से 29 जून, 2009 को कहा, 'अदालत जमानत नहीं देना चाहती, क्योंकि याचिकाकर्ताओं की जमानत याचिका 15 जून को खारिज कर दी गई है। एक केंद्रीय मंत्री ने मुझसे बात की और जमानत देने के लिए मुझ पर प्रभाव डालने की कोशिश की। यदि आप बिना शर्त माफी नहीं मांगते तो मैं अपने आदेश में ये सारी बातें शामिल कर दूंगा।Ó बाद में उन्होंने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र में कहा था कि अभियुक्त के वकील ने उन्हें फोन देकर मंत्री से बात करने को कहा था, जो उन्होंने नहीं की। बाद में रघुपति सुनवाई से हट गए थे। इस मामले में दूरसंचार मंत्री ए राजा पर संदेह किया जा रहा है कि उनसे ही चीफ जस्टिस को बात करने के लिए कहा गया था। मुख्य अभियुक्त डॉ. कृष्णमूर्ति ए राजा के विश्वस्त लोगों में से एक रहा है।
महिलाओं कम, मामले ज्यादा
उच्चतम न्यायलय से लेकर निचली अदालतों तक में करोड़ों लंबित मामले हैं। जजों की कमी साफ नजर आती है। साथ ही महिला न्यायधीशों की कमी भी साफ नजर आती है। सुप्रीम कोर्ट के कुल 24 जजों में एक भी महिला नहीं है। देश के 21 उच्च न्यायलयों में फिलहाल 617 जज हैं, पर उनमें से महिला जजों की संख्या महज 45 है। हाल यह है कि छत्तीसगढ़, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, सिक्किम और उत्तराखंड उच्च न्यायलय में एक भी जज महिला नहीं है। देश में सबसे ज्यादा 73 जज इलाहाबाद हाई कोर्ट में हैं, लेकिन उनमें महिला जजों की तादाद महज तीन है। देश में सबसे ज्यादा महिला जजों की तादाद बॉम्बे हाई कोर्ट में हैं। कुल 66 जजों वाले इस कोर्ट में महिला जजों की संख्या सात है। देश के उच्च न्यायलयों में अब भी 269 पोस्ट खाली हैं। संविधान की धारा 124 और 217 में उच्चतम और उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति का प्रावधान है, जो कि किसी भी जाति या व्यक्ति को आरक्षण देने से रोकती है। ऐसे में महिलाओं को किसी तरह का आरक्षण भी नहीं मिल सकता। इन सबके बीच यह चीज सुनिश्चित की जा सकती है कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता अपनाई जाए। सुप्रीम कोर्ट के 57 साल के इतिहास में आज तक सिर्फ तीन महिला जज हुई हैं। आखिरी जस्टिस रूमा पाल रहीं, जो 2006 में रिटायर हुईं।
-आशीष जैन

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1 comment:

  1. सब से पहली बात तो यह है कि जजों और अदालतों की संख्या पर्याप्त होनी चाहिए जो अभी जरूरत की 20 प्रतिशत से भी कम है। यदि यह लक्ष्य 100 प्रतिशत प्राप्त कर लिया जाए तो बाकी समस्याएँ स्वतः ही न्यूनतम हो जाएँगी। उन से निपटना आसान होगा।

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