पिता हैं वे मेरे
पर दोस्त से लगते हैं।
हर पल मेरे साथ साए से बने रहते हैं।
दर्द में, खुशी में या किसी डर में
मैं सदा उनकी उंगली थामे रहता हूं।
पिता हैं वे मेरे
पर प्यार जैसे लगते हैं।
जब कभी लगाते हैं गले से
लगता है मैं मैं ना रहा।
गले मिलकर भूल जाता हूं सारा जहां।
पिता हैं वे मेरे
लगते हैं गुरू जैसे।
जब-तब डांट देते हैं मुझे
लगता है सीख रहा हूं दुनिया की गणित
बताते हैं क्या भला है क्या बुरा।
पिता हैं वे मेरे
लगते हैं पुत्र से मेरे।
जब कभी जरूरत होती है
मैं ही देता हूं उन्हें सहारा।
सुनता भी हूं उनकी बात पूरी।
पिता हैं वे मेरे
लगता है हर रिश्ते से परे
बस वे पिता हैं मेरे।
- आशीष जैन
Mohalla Live
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Mohalla Live
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गाली-मुक्त सिनेमा में आ पाएगा पूरा समाज?
Posted: 24 Jan 2015 12:35 AM PST
सिनेमा समाज की कहानी कहता है और...
9 years ago
ashish, your feeling are truely ameging.................very good way to show the son and father relationship.
ReplyDeleteप्रिय आशीष जी ,सादर अभिवादन
ReplyDeleteसुखद संयोग से आपके ब्लॉग पे ये कविता " पिता हैं वो मेरे " पढ़ी ,अच्छी कविता है ,
कुछ दिन पहले मेरे पिता जी और देश के वरिष्ठ जनकवि स्व श्री विपिन 'मणि' जी की पुण्य स्मृति में मैंने भी एक कविता लिखी थी '
आपको भेज रहा हूँ देखियेगा
कौन कहता है हमारे साथ में अब तुम नहीं हो
तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो .......
आपकी खुशबू अभी तक आ रही है हर जगह से
आपको महसूस करते हैं पुरानी ही तरह से
किस घड़ी किस पल बताओ आपको हम भूल पाते
जागते सोते हमेशा आपको हम पास पाते
जिस सहारे की बदौलत आज तक पाया किनारा
आज तक भी मिल रहा है उँगलियों का वो सहारा
साफ सुनते हैं सभी हम हर दिवस में हर निशा में
आपकी आवाज अब तक गूंजती है हर दिशा में
आप हो मुस्कान सबकी आप हम सबकी हँसी हो
तुम यहीं हो , तुम यहीं हो , तुम यहीं हो .........
गर न होते आप कैसे ये चमन गुलजार होता
किस तरह हंसती हवाएं खुशनुमा संसार होता
किस तरह खिलते यहाँ पर फूल कलियाँ मुस्कुराती
सिर्फ सन्नाटा नज़र आता जहाँ तक आँख जाती
आंसुओं की धार बहती , होठ सबके थरथराते
कोयलों के कंठ से फ़िर गीत कैसे फूट पाते
किस तरह से दीप जलते दिख रहे होते यहाँ पर
फैल जाते घोर तं के पांव सारी ही जगह पर
आप हो मुस्कान सबकी ,आप हम सबकी हँसी हो ,
तुम यहीं हो , तुम यहीं हो , तुम यहीं हो ...........
आपके दम से अभी तक कंपकंपी है बरगदों में
बिजलियाँ गिरती नहीं हैं पेड़ पौधों की जदों में
दम नहीं है आँधियों का , भूलकर इस ओर आयें
दम नहीं है नागफ़णियों का जरा भी सर उठायें
आपका हर इक इशारा रुख हवा का मोड़ता है
आपका साहस रगों में खून बनकर दौड़ता है
आपकी हर सीख देखो सत्य का ध्वज बन चुकी है
आपने जो आग बोई आज सूरज बन चुकी है
आंसुओं को पोंछ देती आपकी वो खिलखिलाहट
कौन भूलेगा बताओ आपकी वो जगमगाहट
इस उजाले को हमेशा याद रक्खेगा ज़माना
मौत के बस में नहीं है रौशनी को मर पाना
आप हो सांसें हमारी , हम सभी की जिंदगी हो
तुम यहीं हो ,तुम यहीं हो , तुम यहीं हो ...........
डॉ .उदय 'मणि 'कौशिक
094142-60806
महावीर नगर सेकेण्ड
कोटा , राजस्थान
umkaushik@gmail.com
udaymanikaushik@yahoo.co.in
हाँ आशीष जी , शुरुआत में अच्छा रहेगा यदि आप अपने ब्लॉग से वर्ड -वरिफिकेशन हटा लें
इस से कमेन्ट की संख्या बढ़ जाएगी
NOTE....
हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं , ग़ज़लों , व् अन्य रचनाओं के लिए देखें
http://mainsamayhun.blogspot.com